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लोग क्या कहेंगे? (e-Book)
Author: ऋतुराज शर्मा
इस कहानी में एक लड़की की सोच लिखी है। केसे एक लड़की अपने परिवार के सम्मान, सिद्धांत ओर थोड़े से अभिमान के लिए अपने जीवन का बलिदान कर लेती है। ये कहानी जिस किसी को भी समझ आएगी उसे समझ आएगा कि आज भी हम ओर हमारे विचार किस तरह के हैं। किस तरह की सोच है जो हमारी जीने की इच्छा को खत्म कर देती है।
Book Name | लोग क्या कहेंगे? |
Author | ऋतुराज शर्मा |
ISBN | 978-81-985952-2-5 |
Publisher | Koryfi Group of Media and Publications |
Paperback Price | Rs. 190/- |
e-Book Price | Rs. 150/- |
Format | Paperback & e-Book |
Book Size | 5.5″ X 8″ |
Pages | 77 |
Age Group | 13+ Years |
Paper Type | White Paper |
Interior | Black & White |
Cover | Matte Finish |
Genre | Fiction, Novel, Social Awareness |
Language | Hindi |
Published | February, 2025 |
Edition | 1 (2025) |
इस कहानी में एक लड़की की सोच लिखी है। केसे एक लड़की अपने परिवार के सम्मान, सिद्धांत ओर थोड़े से अभिमान के लिए अपने जीवन का बलिदान कर लेती है। मैं ये तो जानता था कि हम 20वीं शताब्दी में जी रहे हैं। मगर ये भूल गया था कि हम आज भी हमारी सोच 18वीं शताब्दी की तरह रखते हैं। ये कहानी जिस किसी को भी समझ आएगी उसे समझ आएगा कि आज भी हम ओर हमारे विचार किस तरह के हैं। किस तरह की सोच है जो हमारी जीने की इच्छा को खत्म कर देती है। ये एक ऐसी कहानी है जहाँ एक इंसान की पूरी जिंदगी ख़तम हो जाती है एक सोच के आगे। उसे जिंदा होकर भी हर रोज मुर्दे की तरह जीना होता है। क्योंकि इस समाज की सोच आज भी हमारे ऊपर पुरी तरह हवी है। आज भी हम खुदको बदल नहीं पाएं। हम वक्त के साथ डिग्री लेकर शिक्षित तो हो गए. लेकिन हम हमारे समाज की सोच को शिक्षित नहीं कर पाये. खुद की सोच को वक्त के साथ बदल नहीं पाएं. सब कहते तो है कि” वक्त बदल गया है” लेकिन हमारी सोच आज भी इस सोसाइटी में नहीं बदल पाई. “एक ही जिंदगी को जीने के लिए हमें हर रोज मरना पड़ता है”। “बस इस चेहरे पर मुखोटा लगाकर हंसते हुए जबरदस्ती जीना पड़ता है। तकलीफ़ी आती जाती रहती है… बस यही सोच कर अपनी नज़रो में खुद को साबित करना पड़ता है।”
इस कहानी में एक लड़की की सोच लिखी है। केसे एक लड़की अपने परिवार के सम्मान, सिद्धांत ओर थोड़े से अभिमान के लिए अपने जीवन का बलिदान कर लेती है। मैं ये तो जानता था कि हम 20वीं शताब्दी में जी रहे हैं। मगर ये भूल गया था कि हम आज भी हमारी सोच 18वीं शताब्दी की तरह रखते हैं।
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